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Home आर्टिकल

समीक्षात्मक आलेख: द कश्मीर फाइल्स “Convert, run or die!”

by जनपक्ष
March 14, 2022
in आर्टिकल, मनोरंजन
Reading Time: 1 min read
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The Kashmir Files
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janpaksh article
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”
युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार

मैं फिल्म से हटकर भी बात करना चाहूँगा, फिल्म तो है ही साथ में खैर!
अगर हकीकत कहना सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना है तो सांप्रदायिकता को अंजाम देने वालों के बारे में क्या कहना है?

जो हुआ सो हुआ, अब क्यों कहना! यदि यही सोच सही है तब तो कोई भी अत्याचार मायने रखता ही नहीं। फिर चाहे वो पितृसत्तात्मक समाज द्वारा औरतों पर किए गए हों! फिर वो जाति का दंश हो गुमान हो, उसकी आड़ में रोज़ कलम क्यों घिसनी! हुआ तो हुआ।

मानवता की बातें करने वाले गिन गिनकर पानी पी पीकर नफरतों भरी बातें लिखते हैं और जब असल बात लिखने की बारी आती है तब शेर शायरी निकलती है। जैसा फिल्म में भी दिखाया गया है, “हम देखेंगे साथी लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।” कुछ भी हो शुरू हो जाओ बस कि हम देखेंगे।

ज़ख्मों पर बात क्यों नहीं करनी! ज़ख्मों पर बात करना सांप्रदायिकता फैलाना है! पीढ़ियों की पीढ़ियाँ खप गई, बर्बाद हो गई दर्द झेल झेलकर और आप बात करते हैं कि इस पर बात करनी ही क्यों! अपनी तकलीफों की पोस्ट बना बनाकर गम को ग्लोरिफाई करने वाले बात करते हैं कि ऐसी फिल्म बनानी ही क्यों! ये तो प्रोपगेंडा है!

ऐसी अनर्गल बातें करने वाले कुतर्की लोग कभी मिले भी हैं किसी कश्मीरी पंडित से! मैं मिला हूँ उस परिवार से जिसकी बच्ची को नोंचा गया खींच खींच कर घर से बाहर। मैं सिर्फ एक परिवार भर से मिली जबकि हैं कितने! उनके दर्द को सुनना दिखाना सांप्रदायिकता है!

फिल्म बना देना हिंसा फैलाना कैसे हुआ जबकि फैलाई गई हिंसा पर फिल्म बनी है!

कश्मीर फाइल्स  देखने के लिए कहना भड़काना कैसे हो गया! इस वाहियात बात के हिसाब से तो किसी के ज़ख़्म को‌ देखना खुद को अपराधी बनने की ट्रेनिंग देना हो गया गोया। हिंसा के दस्तावेज़ इसलिए भी देखने चाहिए कि उसमें मौजूद किसी के ज़ख्मों की छाप से विचलित हो भविष्य में ऐसा ना करने की सीख मिले हिंसक फरी-डम फाइटर और शोषकों को।

इतिहास छिपाने से भविष्य नहीं बदलता, उसे समझने और उससे सीख लेने से बदलता है। अब ये तो आपकी कमज़ोरी है कि हिंसा देखकर आप भी हिंसा करने के लिए मोटिवेट हो जाएँ या उससे दुःखी हो हमेशा के लिए अहिंसक हो जाएँ। सो अपने दिमाग पर काबू रखना ज़्यादा महत्वपूर्ण है बजाए सामने वाले के।

जब कोई इंसान ये कह रहा हो कि हमारे ऊपर ये अत्याचार हुआ, ये शोषण हुआ इस तरह से हिंसा की गई तब आपका उसे ना देखकर उसके नाम के साथ लगे सरनेम को देखना आपके अंदर की जातिवादी खुन्नस दिखाता है, उसकी नहीं। कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचारों की हकीकत में जब आप सिर्फ “पंडित” शब्द पर कंसंट्रेट करते हैं तब ये आपके अंदर बसी घृणा दिखाता है ना कि एक पंडित के पंडित होने का दंभ।

दंभ होता तो शोषित नहीं शोषक होते। फिल्म में एक जगह कहा गया है जब सामने वाला पूछता है कि ऐसा करोगे तो आदमी गन तो उठाएगा ही, तब उसी से ये पूछा जाता है कि, “कश्मीरी पंडितों ने तो कभी गन नहीं उठाई। क्यों?”

कुछ लोग पंडित शब्द पर बिलख रहे हैं; मतलब ये नहीं देखना और स्वीकार करना है कि ऐसा हुआ और जो दिखाया उससे कहीं ज़्यादा बर्बरता से हुआ, देखना ये है कि पंडित क्यों बोला जा रहा है!

तो क्या बोला जाए! ये कि, “कुछ लोगों पर कुछ लोगों ने अत्याचार किए, फिर कुछ लोग मर गए, फिर कुछ भाग गए, फिर कुछ भगा दिए गए, फिर कुछ का बलात्कार किया गया!” ये, ये बोला जाए! जिन लोगों को इस बात से दिक्कत हो रही है कि सिर्फ कश्मीरी पंडित नहीं मरे और भी लोग मरे, अरे तो भाई इसी का तो जवाब है फिल्म में। जाकर देख भी आइएगा या यहीं फेसबुक की एक पोस्ट में ही तीन घंटे और तीस बरसों की पीड़ा का सार ढूँढिएगा। हिंदू को हिंदू या पंडित को पंडित कहना एग्जेक्टली वैसा ही है जैसा अभी आपको कोई ये बताए कि आठ बजने वाले हैं और भारत श्रीलंका का टेस्ट मैच आ रहा है और आपका पूरा नाम ये है। एकदम सीधी सीधी बात बिना किसी इफ बट के।

देखिए और अपनी बात रखिए। ये क्यों कहा वो क्यों नहीं कहा, सुनने में आ रहा है हालांकि देखी नहीं है फिल्म, ये सब क्या होता है भाई और इसका सेंस क्या है कि देखी नहीं है पर सुनने में आया है कि एजेंडा है?

जब बीस बरस पुराने “मी टू” निकलकर आ सकते हैं और दर्ज़ हो सकते हैं (जो कि अच्छी बात है) तब घरों में घुसकर किए गए बलात्कार क्यों नहीं दर्ज़ हो सकते और वो भी एक फिल्म मात्र में! तब भीषण हिंदू नरसंहार क्यों नहीं दर्ज़ हो! तब “द कश्मीर फाइल्स” क्यों नहीं दर्ज़ हो!

मैंने पूछा आखिर क्यों नहीं! अपनी सीट रिज़र्व रखिए किंतु दूसरों की सीट पर तो रूमाल मत रख दीजिए।

मैं इस फिल्म की कोई समीक्षा नहीं लिख रहा। मैं इसे समीक्षा के अंतर्गत रखना ही नहीं चाह रहा। ये फिल्म तो पीड़ाओं का दस्तावेज़ हैं और इस पर मैं क्या ही लिखूँ। मैं बस विवेक रंजन अग्निहोत्री को धन्यवाद दे रहा हूँ।

मैं समझ सकता हूँ कि लगभग तीन घंटे की फिल्म में सब कुछ नहीं समेटा जा सकता। लेकिन जो आपने समेटा, वही तो सबसे महत्वपूर्ण है। तो जब सबसे महत्वपूर्ण बातें आप नहीं भूले तो कोई शिक़ायत ही नहीं।

निर्देशक ने कुछ कुछ जगहें तो ऐसी घेरी हैं कि आप उस पर सोचते रह जाने पर मजबूर हो जाएँगे। बहुत बहुत बारीक चीज़ें जैसे अपने घर के प्रति लगाव से जुड़ा गीत गाते गाते एक महिला दम तोड़ देती है दरबदर होती हुई।

बावजूद इसके कि भीषण हिंदू नरसंहार की बर्बरता का कुछ प्रतिशत ही दिखाया गया है जो कि ठीक भी है (क्योंकि वो‌ देखने का जिगर नहीं है भाई) ये फिल्म एक बहादुर निर्देशक द्वारा बनाई गई है।

फिल्म में संवाद हैं “कि कश्मीर का सच इतना सच है कि वो लोगों को झूठ ही लगता है और जब तक सच जूते पहनता है, झूठ पूरी दुनिया का चक्कर लगाकर आ चुका होता है। पढ़ा नहीं तो इतिहास नहीं और देखा नहीं तो‌ क्या हुआ नहीं।”

हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे का राग अलापने वालों से, पीड़ित शख़्स ये पूछता है कि हम देखेंगे हम देखेंगे, क्या देखेंगे आप! आइए तो फिर साथ में देखते हैं साथी जो आज तक आपने देखा नहीं और उस भयावह सच के साथ ये फिल्म खत्म होती है।

ये इस फिल्म का एकदम न्यायोचित अंत था, इसे यहीं पर ख़त्म होना था। लोग ऐसे निकले जैसे श्मशान से निकलते हैं। भारी हृदय, नम आँखें।

विवेक रंजन अग्निहोत्री जी, मैं जानता हूँ कि बॉलीवुड में रहते हुए इतना साहस भरा सिनेमा बना देना बिल्कुल भी आसान नहीं है। फिल्म का विषय इतना गंभीर और भारी है कि मेरा ध्यान किसी कमी की तरफ नहीं गया और अंत में मुझे महसूस हुआ कि कोई कमी थी ही नहीं और जो थी वो बिल्कुल भी नोटिस करने लायक नहीं बल्कि इस विषय पर ऐसी फिल्म बना देना ही सारी कमियों से ऊपर उठकर हिम्मत करना है।

फेक न्यूज़ फैलाने वाले मीडिया हाउस के लिए तो कह ही दिया है फिल्म में कि अगर आप बिकने को तैयार हैं तो बाज़ार तो खुले हुए ही हैं।

ब्रेन वॉश करने वाले सीन विवेक रंजन ने बहुत गंभीरता से रखे हैं। ना ना आतंकवादी के आतंकवादी बनने की क्यूट सी कहानी के नहीं, बल्कि आतंकवादी के प्रति जो जस्टिफिकेशन दिए जाते हैं, उन्हें तोड़कर रख देने का कि “कश्मीरी पंडितों ने तो कभी गन नहीं उठाई। क्यों!”

इस तरह की फिल्में दर्द और पीड़ाओं का दस्तावेज़ होती हैं, ना कि संदेश कि जाओ‌ और बदला लो। जैसे कविता, कहानियाँ और आपकी पल पल‌ की पोस्ट शोषण, पीड़ा, उदासी और दर्द को दिखाती हैं, ये बस वही है जो‌ हकीकत से लबरेज़ है।‌ बात बात में ऑफेंड होना और स्वयं को संवेदनशील कहना, एक साथ तो नहीं हो सकता बंधु। फ़ालतू के कूल कीवर्ड; बुद्धिजीवी, सेक्युलर आदि इत्यादि यूज़ करके अपना खंभा ना नोंचे। निशान तो खंभे पर भी पड़ते हैं।

“टूटे हुए लोग बोलते नहीं, उन्हें सुना जाता है।”

Tags: Bollywood NewsHindi Film NewsHindu PanditReview article: The Kashmir Files "Convertrun or die!"The Kashmir Filesद कश्मीर फाइल्स
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