सनातन को उसके उत्कर्ष से पृथक नहीं देखा जा सकता! यह उत्कर्ष जीवन के हर आयाम में गति करता है। शान्ति में, आनन्द में, अप्रत्यक्ष संकट में और युद्धकालीन संकट में भी। सनातन में पूरता समाविष्ट है। सृष्टि की संरचना में जो विभेद है, उसकी जो कार्यप्रणाली है, उसमें सत्-असत्, सगुण-निर्गुण, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, उत्थान-पतन, सृजन-विनाश सभी का अपना चक्र है। धर्म इन दोनों छोरों पर गति करता है। कुरुक्षेत्र में अर्जुन का धर्म युद्ध करना है। अज्ञातवास में तप। प्रभु श्रीराम समयचक्र को लाँघते हुए इन दोनों छोरों पर चेतना की सर्वोच्च व अक्षुण्ण स्थिति को ही प्रतिष्ठापित करते हैं। कृष्ण कुरुक्षेत्र में उपदेशक हैं, किन्तु शस्त्र से अछूते नहीं! विषाद, ज्ञान-विज्ञान, संन्यास, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, कर्म, भक्ति, विश्वदर्शन इत्यादि समस्त माध्यमों से अर्जुन को वो चेतना के उस शिखर पर ले जाते हैं, जहाँ से युद्ध की अनिवार्यता पर उसके सन्देह का शमन हो सके। शिव अस्तित्व के सबसे बड़े योद्धा हैं। सबकुछ भस्मीभूत करने वाले और इस भस्म को अपने ऊपर धारण करने वाले। शिव सर्वत्र युद्ध में ही हैं। शिव सर्वकालिक योद्धा हैं। उनकी शान्ति, उनके भीतर का तप, उनकी उत्पत्ति ही सन्तुलन की सीमाओं को बनाए रखना है। जो शिव ऐसे हैं, उन्हें हम वैसे ही आत्मसात करते हैं।
सनातन दर्शन कितने गहरे में सृष्टि की सूक्ष्मतम क्रियाविधियों का परीक्षण करता है। ब्रह्मा सृष्टि के निर्माता हैं, निर्माण बुद्धि का उपक्रम है। अतएव बुद्धि की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती उनके सङ्ग हैं। विष्णु पालक हैं। भरण-पोषण एक उद्यम है। उद्यम से फल मिलता है। अतएव लक्ष्मी उनकी अधिष्ठात्री हुईं। शिव संहारकर्ता हैं, संहार हेतु शक्ति की आवश्यकता होती है। अतएव दुर्गा उनकी संगिनी बनीं। सनातन जीवन की समस्त गतिमान गतियों में गति करता है। बाबा तुलसी योद्धा नहीं हैं, किन्तु वे श्रीरामचरित कहकर इस गति में अपने भाग को मिला जाते हैं। आदिशंकर धर्म मे व्याप्त संकीर्णताओं को, पददलित होते हिन्दू अस्मिता को ऐसा वृहत्तर आयाम देते हैं, जिन्हें स्पर्श करने के लिए किसी भी सामान्य मनुष्य के कई जन्म खप जायेंगे और वह ऐसा उत्कर्ष नहीं प्राप्त कर सकेगा। आदिशंकर की यह यात्रा सूक्ष्म रूप से एक युद्ध ही है। बस हमारी समझ की निचली अवस्थाओं में इसकी व्याप्ति नहीं हो पाती। बुद्ध सनातन के ही संवाहक हैं। बस देशकाल और परिस्थितियों में उसका स्वरूप बदलता रहता है। सनातन का कोई भी सूक्ष्मदर्शी चाहे वह किसी का उपासक हो, वह इसी व्यवस्था को साधकर ही चला है। कृष्ण जैसे योगेश्वर भी यहीं बात कहते हैं।
काशी या कि मथुरा। अयोध्या या कि रामेश्वरम। कामेश्वरी या कि छिन्नमस्ता। इन सभी स्वरूपों में युगों की आहुतियाँ हैं। कहते हैं कि काशी अर्थात आनन्द को देने वाला। एक तत्वदर्शी ने मुझसे कहा कि उसे महाश्मशान में स्वयं बाबा ने बताया था कि काशी अर्थात काली और शिव। मेरे अर्थों में काशी सम्पूर्ण आर्यावर्त है। इसे स्थान विशेष में विभक्त नहीं किया जा सकता। काली को लिए शिव कहाँ नहीं व्याप्त हैं भला! हमारे आराध्य एक हैं। अपने भिन्न स्वरूपों से वह हर स्थान को अपनी भव्यता से भरते हैं। शतियों के क्रूर कालचक्र ने भी इसी सन्तुलन में अपने को साधा है। किन्तु यह कालचक्र पुनः उसी ओर लौट रहा, जहाँ से सकल विश्व का कल्याण होगा।
शिव अपनी लौकिकता में मोहते हैं। उन जैसा कोई न हुआ। वे प्रपंच का शमन करते हैं। शिव प्रतीक्षा के धरातल पर बैठे ऐसे शिखरपुरुष हैं, जनकी शोभना में समस्त जगत ही उत्सव है। इस उत्सव में रङ्ग है, बौराहट है, काल है, आनन्द है, दण्ड है, विधान है। कृष्ण कहते हैं कि धनुर्धारियों में वे राम हैं। और राम रामेश्वरम में अति की सर्वश्रेष्ठ सीमाओं को जब लाँघने चलते हैं तो वे ‘लिङ्ग थापि विधिवत करि पूजा, शिव समान मोहिं प्रिय नहिं दूजा’ कहते हैं। रामकृष्ण दोनो इसी अर्थ में शिव हो जाते हैं। और यह सनातन, उन्हीं शिव का विस्तार है। और वे जहाँ रहते हैं, वह काशी है। मात्र एक स्थान नहीं, अपितु व्यापक अर्थों में सकल सनातन भूमि। शिव का जहाँ वास होगा, उस स्थल को सुन्दर होने से कौन रोक सकेगा भला! तभी तो कहता हूँ :-
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